मेंहदी / राकेश खंडेलवाल
बीन के राग को छेड़ने के लिये
हाथ की लाल मेंहदी सिसकती रही
नाम तुमने कभी मुझसे पूछा नहीं
कौन हूँ मैं ये मैं भी नहीं जानता
आईने का कोई अक्स बतलायेगा
असलियत क्या मेरी मै नहीं मानता
मेरे चेहरे पे अनगिन मुखौटे चढ़े
वक्त के साथ जिनको बदलता रहा
मैने भ्रम को हकीकत है माना सदा
मैं स्वयं अपने खुद को हूँ छलता रहा
हाथ आईं नहीं मेरे उपलब्धियाँ
बालू मुट्ठी से पल पल खिसकती रही
यज्ञ करते हुए हाथ मेरे जले
मन्त्र भी होंठ को छू न पाये कभी
आहुति आहुति स्वप्न जलते रहे
दृष्टि के पाटलों पे न आये कभी
कामनायें रिचाओं में उलझी रहीं
वेद आशा का आव्हान करते रहे
उम्र बनकर पुरोहित छले जा रही
जिन्दगी होम हम अपनी करते रहे
दक्षिणा के लिये शेष कुछ न बचा
अश्रु की बून्द, आँजुरि में भरती रही
एक बढ़ते हुए मौन की गोद में
मेरे दिन सो गये मेरी रातें जगीं
एक थैली में भर धूप सन्ध्या मेरे
द्वार पर आके करती रही दिल्लगी
होके निस्तब्ध हर इक दिशा देखती
दायरों में बँधा चक्र चलता रहा
किससे कहते सितारे हृदय की व्यथा
चाँद भी चाँदनी में पिघलता रहा
एक आवारगी लेके आगोश में
मेरे पग, झाँझरों सी खनकती रही
एक सूरज रहा मुट्ठियों में छिपा
रोशनी दीप के द्वार ठहरी रही
धुन्ध के गाँव में रास्ता ढूँढती
भोर से साँझ तक थी दुपहरी रही
मौन आईना था कुछ भी बोला नहीं
प्रश्न पर प्रश्न पूछा करी हर नजर
साफ़ दामन बचा कर निकलती रही
अजनबी होके हर एक राहे गुजर
और स्वर की नई कोंपलों के लिये
इक विरहिणी बदरिया बरसती रही
रूप मुझसे ख़फा होके बैठा रहा
वस्ल की एवजों में जुदाई मिली
मैने चाहा था भर लूँ गज़ल बाँह में
किन्तु अतुकान्त सी इक रुबाई मिली
मेरा अस्तित्व है मात्रा की तरह
अक्षरों के बिना जो अधूरी रही
मैं चला हूँ निरन्तर सफर में मगर
रोज बढ़ती हुई पथ की दूरी रही
काल ने कुछ न छोड़ा किसी हाट में
साँस टूटी हुई बस निकलती रही
गूँज पायी नहीं गूँज घड़ियाल की
मन्दिरों में नहीं हो सकी आरती
कोई दीपक सिराने यहाँ आयेगा
रह गईं आस बूटे लहर काढ़ती
बाँच पाया कथायें नहीं कोई भी
कोई श्लोक क्रम से नहीं मिल सका
हो न पायी कभी पूर्ण आराधना
अर्चना के लिये पुष्प खिल न सका
एक सुकुमार गोरी किरण के लिये
प्यास भोले शलभ की मचलती रही!