मेघदुन्दुभि (कविता) / रामइकबाल सिंह 'राकेश'
नीलांजन के समान कृष्ण अजिन धारण कर,
दिगदिगन्त, अन्तरिक्ष, अम्बर को संवृत कर;
इस गिरि से उस गिरि पर आगे बढ़ रुक-रुक कर,
उमड़ चले कामरूप श्याम मेघ दल-के-दल।
तड़ित-रूप कंचन के कोडे़ से ज्योतिकान्त,
बार-बार हो-हो कर ताड़ित, कम्पित, अशान्त;
किया मेघ के स्वर में अम्बर ने आर्त्तनाद,
सागर, वन अद्रि-शृंग काँप उठे थर-थर-थर।
झूम उठे वन-वितान लता-गुल्म-झाड़ हरे,
तरु की पर्णा´्जुलियों में प्रसून-हार भरे;
भूमण्डल-कमल खिले वर्णगन्धज्वार भरे,
क्षण-क्षण में रस-फुहार, कण-कण में प्यार भरे।
शीतल कर्पूरपत्रसदृश पवन तापशमन,
सन्ध्याचन्दनरंजित उत्फुल्लित गगनांगन;
मेघ-कुम्भ से सिंचित निष्कलंक वसुधानन,
दुन्दुभि बन घहरो मम जीवन-घन ऐसे क्षण।
कल्लोलाकुल प्रपात, हिल्लोलित वन-कानन,
इन्द्रगोप से चित्रित ताम्रारुण भू-प्रांगण;
पहन नील सिन्धु वसन आया मादन सावन,
गाओ मम मन-विहंग चिन्मय मंगल गायन।
सारंगी, बेला, सरोद, वीणा, वंशी घन,
किन्नरी, विपंची, मधुस्यन्दी के स्वर मादन;
भर न सके मेरे मन-अम्बर में लय-कम्पन,
होने दो घन-मृदंग से मन्द्रित नाद गहन।
यज्ञ-कुण्ड भुवन, अग्नि मेघ, पवन इन्धन है,
विद्युत अंगार-ज्वाल, विस्फुलिंग गर्जन है;
गन्धपूत हवनद्रव्य वारिधारवर्षण है,
आहुति देते उसमें मेरे स्वर-व्यंजन हैं।
आज, जबकि मंगलमय भुवन-पन्थ पंक-लग्न,
आज, जबकि जीवन का कनकपù धूलिमग्न;
आज, जबकि मानवता का सुमेरु-शंृग भग्न,
प्राणों में उमड़ो, घन घुमड़ो तुम मन्द्र-मन्द्र।
जन-युग का मनः क्षितिज तपन-तप्त मरुसमान,
धधक रहा वैश्वानर उसमें बन कर मशान;
चलते निशिदिन जिसमें चक्रवात घूर्णमान,
संजीवन छिड़को, हो जड़ चरिष्णु प्राणवान।
मेरे स्वर, युगप्रमाण, नवनूतन युग-दर्शन,
सरल सुगम, परम अगम, अम्बरगुण गूढ़ गहन;
हरण करो ग्रहणग्रस्त जनगण का दुख-दूषण,
बरसाओ नेह-नीर, सिक्त करो अन्तर्मन।
गमक उठो डिम-डिम-डिम घन में मम दुन्दुभि-स्वन,
भुवनमेखला में भर छन्द, वर्ण, मधुर ध्वनन;
गरलदन्त पाशवता का पन्नग हो नतफन,
पान करें स्वर्गपेय च्यवनरूप नर वामन।
शब्द-अस्थिपंजर में प्राण-मेरुदण्ड जुड़े,
सरल भावव्यंजन से भग्न लोक-कण्ठ भरे;
जीवन-रण-स्यन्दन ऋतु-पथ पर संचरण करे,
अन्तश्चेतन मानस संशय-तम क्रमण करे।
(‘नया समाज’, जुलाई, 1955)