मेघ-रन्ध्र में बजी रागिनी / हुंकार / रामधारी सिंह "दिनकर"
सावधान हों निखिल दिशाएँ, सजग व्योमवासी सुरगन!
बहने चले आज खुल-खुल कर लंका के उनचास पवन।
हे अशेषफण शेष! सजग हो, थामो धरा, धरो भूधर,
मेघ-रन्ध्र में बजी रागिनी, टूट न पड़े कहीं अम्बर।
गूँजे तुमुल विषाण गगन में गाओ, है गाओं किन्नर!
उतरो भावुक प्रलय! भूमि पर आओं शिव! आओ सुन्दर।
बजे दीप्ति का राग गगन में, बजे किरण का तार बजे;
अघ पीनेवाली भीषण ज्वालाओं का त्योहार सजे।
हिले 'आल्प्स' का मूल, हिले 'राकी', छोटा जापान हिले,
मेघ-रन्ध्र में बजी रागिनी, अब तो हिंदुस्तान हिले।
चोट पडी भूमध्य-सिन्धु में, नील-तटी में शोर हुआ;
मर्कट चढ़े कोट पर देखो, उठो, 'सिलासी'! भोर हुआ।
हुआ विधाता वाम, 'जिनेवा'-बीच सुधी चकराते हैं;
बुझा रहे ज्वाला साँसों से, कर से आँच लगाते हैं!
'राइन'-तट पर खिली सभ्यता, 'हिटलर' खड़ा कौन बोले?
सस्ता खून यहूदी का है, 'नाजी'! निज 'स्वस्तिक' धो ले।
ले हिलोर 'अतलांत'! भयंकर, जाग, प्रलय का बाण चला;
जाग प्रशान्त, कौन जाने, किस ओर आज तुफान चला?
'दजला'! चेत, 'फुरात'! सजग हो, जाग-जाग ओ शंघाई!
लाल सिन्धु! बोले किस पर यह घटा घुमड़ छाने आयी।
बर्फों की दीवार खडी, ऊँचे-नीचे पर्वत ढालू,
तो भी पंजा बजा रहा है साइबेरिया का भालू।
काबुल मूक, दूर "यूरल" है, क्या भोली 'आमु' बोले?
उद्वेलित 'भूमध्य', स्वेज का मुख इटली कैसे खोले?
श्वेतानन स्वर्गीय देव हम! ये हब्शी रेगिस्तानी!
ईसा साखी रहें, इसाई दुनिया ने बर्छी तानी।
(सन् 1935 ई0 में रक्तपिपासु इटैलियन फैसिस्टों द्वारा अबीसीनिया पर आक्रमण के अवसर पर लिखित)