भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मेघ आए / सर्वेश्वरदयाल सक्सेना
Kavita Kosh से
मेघ आए बड़े बन-ठन के, सँवर के ।
आगे-आगे नाचती-गाती बयार चली
दरवाजे-खिड़कियाँ खुलने लगीं गली-गली
पाहुन ज्यों आए हों गाँव में शहर के ।
पेड़ झुक झाँकने लगे गरदन उचकाए
आँधी चली, धूल भागी घाघरा उठाए
बाँकी चितवन उठा नदी, ठिठकी, घूँघट सरके ।
बूढ़े़ पीपल ने आगे बढ़ कर जुहार की
‘बरस बाद सुधि लीन्ही’
बोली अकुलाई लता ओट हो किवार की
हरसाया ताल लाया पानी परात भर के ।
क्षितिज अटारी गदराई दामिनि दमकी
‘क्षमा करो गाँठ खुल गई अब भरम की’
बाँध टूटा झर-झर मिलन अश्रु ढरके
मेघ आए बड़े बन-ठन के, सँवर के ।