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मेघ और शशि / महेन्द्र भटनागर

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नभ में मेघों के टुकड़ों से
खेल रहा शशि आँख-मिचैनी !

शशि — सुन्दर, मोहक-आकर्षक
गोरे-गोरे अंगों वाला,
इतना तन्मय जाने क्यों, जब
मेघ-असुन्दर काला-काला ?

है क्या कोई जो बतलाए —
कैसे आज हुई अनहोनी !

दौड़ रहे हैं दोनों अविरल,
पर ज्यों ही बादल हँसता है,
तब उन्मादी-सा शशि घन की
युग बाहों में जा फँसता है,

कैसे कह सकता है कोई
किसको अपनी बाज़ी खोनी !

दोनों ने भग कर चरणों से
लगभग नभ को नाप लिया है,
थोड़ा-थोड़ा दोनों ने ही
आज लिया है और दिया है,

रे रहे अजर शशि-घन की यह
युग-युग जोड़ी लोनी-लोनी !