भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मेघ पर मेघ छवले / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / सिपाही सिंह ‘श्रीमंत’

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मेघ पर मेघ छवले
आ गइल अंहार कइले;
अइसन साँझे मेघावन
हमके अकेले काहे
अपना दुआरी पर
अइसे बइठा के अतना
पेंड़ा हेरवावेलऽ?
काम-काज रोज रोज
नाना जंजाल बा
किसिम-किसिम लोग लगे-
रोज अझुराइले।
बाकिर आज दुनिया के
छोड़ के भरोसा सब
तहरे दुआरी आके
तोहें गोहराइले।
आसरा तहार अब त
तहरे भरोसा एगो
बइठल दुआरी तहरे
मिनती सुनाइले।
हमके अकेले काहे
अपना दुआरी पर
अइसे बइठा के अतना
पड़ा हेरवावेलऽ?
कतनो बोलवला से
तूं ना अइबऽ अगर हरि
एहीं गईं करत जबऽ

हमर अवऽहेला हरि
तब भला कइसे कटी
हइसन बरसाती बेरा?
हमके अकेले काहे
अपना दुआरी पर
अइसे बइठा के अतना
पेंड़ा हेरवावेलऽ?
ताकीलें अकेले बइठल
अपलक आकाश कोरी
प्राण बा बंहाइल जइसे
मेघवन का लगे डोरी
हमके अकेले काहे
अपना दुआरी पर
अइसे बइठा के अतना
पेंड़ा हेरवावेलऽ।