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मेरा गाँव / केदारनाथ अग्रवाल

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यहाँ नीम के पेड़ खड़े इतिहास सुनाते।
कटु देहाती गत जीवन की बात बताते॥
यहाँ नीम की छाँह धाम से देह जुड़ाती।
दुःख से मूँदे आँख यहाँ जनता रह जाती॥
यहाँ नीम की लघु निंबकौरी ही इच्छा है।
जीवन के लघु लघु लाभों की वह भिच्छा है॥
यहाँ आम के वृक्ष भूमि से रस लेते हैं।
कम पाते, इसलिए सरस फल कम देते हैं॥
जनता की अभिमति-सी इनकी मति होती है।
क्षुद्र काठ में ही इनकी परिणति होती है॥
सभी लगाए गए गाँव के बाहर पनपे।
उनके ऊपर ताप-दाप दुख दारुण तमके॥
महुओं के मानी पौधों का भी कुनबा है।
संख्या में शायद सब पेड़ों से दुगना है।
लेकिन महुए और मनुज में भेद नहीं है।
राम भरोसे तने हुए हैं, खेद नहीं है॥
इन महुओं के नीचे होता नाच मोर का।
इन महुओं के नीचे होता जुआ जोर का॥
यह है मेरा गाँव यहाँ का मैं वासी हूँ।
नीम, आम; महुए के बिरवों का साथी हूँ॥
मेरा तन इसकी माटी से गढ़ा गया है।
मेरा तन इसके सुख-दुख से मढ़ा गया है।
मेरे ऊपर इसकी माया की छाया है।
गुण अवगुण मैंने इससे ही तो पाया है॥
यह है मेरा गाँव भूमि इसकी तपती है।
शैल सुता-सी कठिन तपस्या वह करती है॥
आलय के खपरैल दहकते रज जलती है।
क्षार लपेटे तप्त मही इसकी रहती है॥
ग्रीष्म यहाँ आकर जल पीता समुद ताल का।
काग यहाँ प्यासा रह जाता कठिन काल का॥
बाँह सूख जाती है तत्क्षण कमल-नाल की।
सृष्टि-विनाशक हो जाती है समय चाल की॥
हृष्ट-पुष्ट हरियाली पेड़ों की झर जाती।
दूब कुएँ के पास पड़ी व्याकुल मुरझाती॥
गहरा पानी और कुएँ का गहरे जाता।
साठ और सत्तर हाथों की रज्जु नापता॥
एक बेर भी हो जाता है कठिन नहाना।
खींच हाथ से पानी सिर ऊपर घर लाना॥
पीना होता है पानी अमरित-सा पीना।
थोड़ा-थोड़ा कंठ सींच कर होता जीना॥
चुचुआता है, सुबह, शाम , दोपहर पसीना।
मैले तन में रात गुजरती नित्य मलीना॥
यहाँ नाम की कभी कभी मिलती तरकारी।
लौकी, कुम्हड़ा, कड़ू करेला की तरकारी॥
जिन्हें नाज देकर खरीदते ग्राम निवासी।
वह भी तिथि त्योहार कभी बनती है भाजी॥
चैत यहाँ संतप्त विकल बैसाख बनाता।
जेठ यहाँ उद्दंड लूक-लपटें ले आता॥
आसमान से आग सूर्य सिर पर बरसाता।
आधी रात गए बीते तक ताप तपाता॥
पिछलहरे की वात सरकती नींद बुलाती।
लोगों को उस समय चैन से तनिक सुलाती॥
यह है मेरा गाँव यहाँ की ग्रीष्म गुमानी।
लूक लपट से दुख देता करता मनमानी॥
लेकिन इस पर भी यह मेरा गाँव कमासिन।
साल-सरल संतप्त काटता गरमी के दिन॥
सदियों से प्रेरित करता है जियो-जियो जन!
वर्षागम पर शीघ्र करेगा ग्रीष्म पलायन॥
हरियायेगा जीवन का चहुँ ओर तपोवन।
हरसाएगा आर-पार चहुँ ओर कृषीजन॥
यही आस विश्वास लिए मन धीरज धारे।
दिन प्रतिदिन के तप-आतप के कष्ट बिसारे॥
खेतपात घरबार गाँव से नेह लगाए।
पुरजन प्रियजन परिजन को आत्मीय बनाए॥
गाँव वासियों का समूह संलग्न काम में।
कभी काटता सन या ढोता पाँस घाम में॥
कोई कृषक बनाते खपरे घर छाने को।
वन जाते हैं कोई ईंधन घर लाने को॥
कोई बैल चराने ‘पाठे’ चल देते हैं।
कोई बैठे बात बूँकते रस लेते हैं॥
ऐसे भी हैं लोग यहाँ जो चोरी करते।
गरमी के अवकाश दिनों में पर-धन हरते॥
डाके में कुछ व्यक्ति यहाँ के शामिल होते।
बीज गुनाहों के बहुतेरे वे हैं बोते॥
कोई झूठ गवाही देते, पेट पालते।
खेतपात से फुरसत लेकर जेब काटते॥
ऐसे भी हैं लोग पुलिस के पिट्ठू जाहिर।
घूस दिलाने में दो तरफा जो हैं माहिर॥
टुटपुँजिए बनिए बेचारे घोड़ी लादे।
बाजारों से माल यहाँ विक्रय को लाते॥
अपनी छोटी दूकानों में बैठ बेचते।
रोकड़-खाते में उधार का जोर देखते॥
यहाँ कार्यक्रम ही समाज के अधोमुखी हैं।
इसीलिए कम लोग यहाँ के अभी सुखी हैं॥
ज्ञान यहाँ पर नहीं जमा पाया है आसन।
बुद्धि यहाँ पर अभी नहीं कर पाई शासन॥
राई-रत्ती भर विद्या मिलती है कुछ को।
दसखत करने की शिक्षा मिलती है कुछ को॥
वह भी शिक्षा निष्प्रयोग रह खो जाती है।
सरस शारदा मूक गाँव की हो जाती है॥
ग्राम देवता भी गँवार-सा कष्ट झेलते।
आसपास की भूमि भवानी पस्त देखते॥
जहाँ खड़े हैं वहीं खड़े हैं एक भाव से।
निस्सहाय दीनों के साथी एक चाव से॥
पथराई आँखों से सब को वह निहारते।
रात समय सपने में आ वह भ्रम निवारते॥
ग्राम देवियाँ भी गँवारिनों-सी विमूढ़ हैं।
मनोभाव अव्यक्त और अतिशय निगूढ़ हैं॥
एक पान पाकर चढ़ाव में वे प्रसन्न हैं।
यद्यपि अपने जन्मकाल से वे निरन्न हैं॥
एक बतासे में सुहाग का वर देती है।
मान-मनौती के मिस विपदा हर लेती है॥
अनुकम्पा पाकर कन्याएँ माँ बनती हैं।
नवयुवती होने से पहले सुत जनती हैं॥
तुलसी के वंशज, हुलसी की कुल-कन्याएँ।
यह दोनों ही सीख चुके हैं काम-कलाएँ॥
आकर्षण आने से पहले यौवन ढलता।
रूप अविकसित विवश पराया होकर पलता॥
डाके पड़ते हैं कामिनियों के अंगों पर।
कामुक जन निर्लज्ज थिरकते भ्रू-भंगों पर॥
कुल-भूषण कुल-दूषण बनते मान गँवाते।
दाम लगाकर दारा लाते गेह बसाते॥
सामाजिक आचरण चरण के नीचे मरता।
सिर के ऊपर समाचार व्यभिचार विचरता॥
यह है मेरा गाँव यहाँ की कुंठित मति है।
अनुशासन से हीन यहाँ की जीवन-गति है॥
फिर भी कुंठित मति के मारे मनुजन हारे।
पतझर में भी वे रहते हैं जीवन धारे॥