भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मेरा पिट्ठू / भारत भूषण अग्रवाल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं और मेरा पिट्ठू
देह से अकेला होकर भी
मैं दो हूँ
मेरे पेट में पिट्ठू है।
जब मैं दफ़्तर में
साहब की घंटी पर उठता-बैठता रहता हूँ,
मेरा पिट्ठू
नदी किनारे वंशी बजाता रहता है!
जब मेरी ‘नोटिंग’ कट-कुट कर ‘टाइप’ होती है
तब साप्ताहिक के मुख पृष्ठ पर
मेरे पिट्ठू की तस्वीर छपती है!
शाम को जब मैं
बस के फुटबोर्ड पर टँगा-टँगा घर आता हूँ
तब मेरा पिट्ठू
चाँदिनी की बाँहों में बाँहें डाले
मुग़ल-गार्डेंस में टहलता रहता है!
और जब मैं
बच्चे की दवा के लिए
‘आउटडोर वार्ड’ की क्यू में खड़ा रहता हूँ।
तब मेरा पिट्ठू
कवि-सम्मेलन के मंच पर पुष्पमालाएं पहनता है!
इन सरगर्मियों से तंग आकर
मैं अपने पिट्ठू से कहता हूँ:
भई! यह ठीक नहीं
एक म्यान में दो तलवारें नहीं रहतीं,
तो मेरा पिट्ठू हँसकर कहता है:
पर एक जेब में दो कलमें तो सभी रखते हैं!
तब मैं झल्लाकर, आस्तीनें चढ़ाकर
अपने पिट्ठू को ललकारता हूँ-
तो फिर जा, भाग जा, मेरा पिंड छोड़,
मात्र कलम बनकर रह!
और यह सुनकर वह चुपके से
मेरे सामने गीता की कॉपी रख देता है!
और जब मैं
हिम्मत बांधकर
आँखें मींचकर, मुट्ठियाँ भींचकर
तय करता हूँ कि अपनी देह उसी को दे दूँगा
तब मेरा पिट्ठू
मुझे झकझोरकर
‘एफिशिएंसी बार’ की याद दिला देता है!
एक दीखने वाली मेरी इस देह में
दो ‘मैं’ है।
एक मैं
और एक मेरा पिट्ठू।
मैं तो खैर, मामूली-सा क्लर्क हूँ
पर, मेरा पिट्ठू?
वह जीनियस है!