मेरा प्रेमी - 1 / मोहिनी सिंह
शीतल निर्मल वो बयार नहीं
जो सीने पे मचल के थम जाये।
लहरों को स्नेह चुम्बन भर ले
सागर का माथा सहलाये।
सागर चाहे वो वेग की सीना
आकाश को जाके छू आए।
झंझावात उठें, तट बंधन टूटे
उल्लास में यौवन उन्मथ जाए।
मैं सागर हूँ ,न शिथिल पवन
बस तूफ़ान मेरा प्रेमी हो॥
प्रेम हो जिसका सोम कि
मादकता में डूब जो सोया है।
वो उन्मादों का दास,उनींद
निद्रा का साथी गोया है।
जो है नहीं जाग्रत प्रबुद्ध
भावों ने जिसको ढोया है।
मुझको फिर वो क्या पाएगा
जिसने खुद को ही खोया है।
मैं रात्रि का ध्रुवतारा हूँ
बस गुडाकेश मेरा प्रेमी हो॥
सुकुमार शाखाओं से पुष्प झूलते
अग्नि बस्ती है शीशम में ।
माटी का तिलक लगाने में नही
वसुधा का प्रेम है कर्षण में ।
तप मांगता वैराग्य नहीं
तप है संघर्ष में, जीवन में।
स्मृतियों से हो न तृप्त प्रेम
सान्निध्य से हो , समर्पण से
मैं आकुलता का लोचन हूँ
बस प्रकाश पुंज मेरा प्रेमी हो॥
मैं कीर्ति का संचित प्रण हूँ
फिर भीष्म जो हो, मेरा प्रेमी हो ॥