मेरा सुल्तान शहनाई सुन रहा है / नेहा नरुका
मुझे तुमसे ऐसे प्रेम हुआ जैसे बाबा भारती को अपने सुल्तान से
पर तुम्हारे अन्दर था एक खड्ग सिंह, जिसकी नज़र रही हमेशा मेरे सुल्तान पर
और तुमने एक दिन मुझे धोखा देकर सुल्तान की लगाम अपने हाथ में ले ली
तुमने लगाम ले लेली थी और मुझे पता था खड्ग सिंह सुल्तान को अब यहां से लेकर ही जाएगा
तो मैंने अपने मन पर हज़ारों पत्थर एक साथ पटक लिए और तुमसे कहा — ले जाओ मेरे सुल्तान को पर यह बात किसी को बताना मत कि तुम किस तरह लाए सुल्तान को वरना लोग प्रेम पर विश्वास करना छोड़ देंगे ।
उस दिन तुम सुल्तान को लेकर चले गए
तुम अगर मेरी कविता चुरा लेते तो मैं दूसरी कविता लिख लेती
तुम अगर मेरा सबसे क़ीमती झुमका चुरा लेते तो मैं दूसरा झुमका ख़रीद लेती
पर तुम तो डाकुओं के सरदार निकले, मेरा सुल्तान ही छीन ले गए !
कविताएँ लिखकर अगर कष्ट का निवारण हो जाता, तो मैं कब से सुल्तान से बिछोह के कष्ट से मुक्त हो गई होती
पर ऐसा नहीं होता । कविताएँ मेरे अन्दर और रह-रहकर टीस पैदा कर रही हैं
लगता है जैसे छाती के बीचोंबीच एक फोड़ा हुआ है, जिसे कभी ठीक होना ही नहीं है
'खड्ग सिंह आएगा, सुल्तान को छुड़ा ले जाएगा', इस सच का भान मुझे बहुत पहले ही हो गया था, पर जब तुमने बहुत दिनों तक सुल्तान को हाथ भी न लगाया तो मैंने उसे सात पहरों में छिपाना बन्द कर दिया
और निसफिकिर होकर रोज़मर्रा के कामों में मग्न हो गई
मुझे लगा खड्ग सिंह मर गया या गांधीगिरी अपना ली उसने, पर मैं मूर्ख थी
खड्ग सिंह ज़िन्दा था, मेरे आस-पास ही था, उसने पहन लिया था सज्जनता का चोला
और मौका पाते ही वह ले भागा मेरे सुल्तान को ।
कविताएँ नहीं हैं निवारण
तो इस कष्ट का कोई तो निवारण होगा
बुद्ध ने कहा है — संसार में दुख हैं तो इसके कारण और निवारण भी ।
हे महात्मा बुद्ध ! तुम ही बताओ, मेरे कष्ट का कोई निवारण ।
बुद्ध ने मानो कहा हो
प्रेम में मिले कष्ट का कोई निवारण नहीं, सिवाय प्रेम करने के, तो सुल्तान से प्रेम करो, इतना करो जितना बाबा भारती ने भी न किया हो, खड्ग सिंह आए भी उसे तुम्हारी कुटिया में बांधने तो उसे छोर कर वापस भेज देना उसके साथ ही... ।
इतना कठिन प्रेम कैसे करूँ... ?
कैसे लिखूँ इसे कविता में कि मेरा सुल्तान अब खड्ग सिंह का दास बन चुका है और खड्गसिंह ने उसे ऐसी पट्टी पढ़ाई है कि वह अपने बाबा भारती की कुटिया की तरफ पीठ करके खड़ा होता है,
नहीं जानती खड्गसिंह के गुप्त महल का ठीक-ठीक पता,
जहां सुल्तान बैठा शहनाई सुन रहा है ।
जानती भी, तो क्या कर लेती । सुल्तान कभी नहीं आता महल को छोड़कर कुटिया में
खड्ग सिंह की क्रूरता इतना व्यथित नहीं करती, जितना करता है सुल्तान का स्वार्थ ।
इस भयानक समय में कैसे करूँ प्रेम,
जब प्रेम की ज़रूरत न खड्गसिंह को रही, न सुल्तान को ।