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मेरी आवाज़ सुनते हो / अबरार अहमद

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तुम्हें देखा था मैं ने
अपने चान्दी जैसे बाज़ू खोल कर
मस्ती में लहराते हुए
स्क्रीन पर
आवाज़ के रँगों के छींटों में
मगर तुम आज मेरे सामने कैसे
किधर से आ गए हो
किस तमन्ना का बुलावा हो
मेरे किस रँज की करवट ?
ये मेरे सर पे चस्पाँ
रौशनी के रू-ब-रू तुम हो ?
ये मेरे सामने, काग़ज़ पे किस का नाम लिख्खा है ?
ये क्या अफ़्सूँ है
कैसी शाम है
बारिश-सी गिरती है
मेरी आवाज़ सुनते हो
कि पिछली रात से
इक जाल में उलझा
किसी बे-नाम से इक ख़्वाब में
तुम से कहे जाता हूँ
क्या-क्या कुछ....
कहीं बिस्तर पे, जाने किस तरफ़ से
गिरती आती है
तुम्हारी चान्दनी
मेरी आवाज़ सुनते हो
तो इस को रायगाँ उम्रों की जानिब से
किसी बे सम्त राही के
थके क़दमों से निसबत दो
ये दरवाज़ा
ज़रा सी देर को खोलो
तुम्हारे लम्स से, मलबूस से
दीवार-ओ-दर से
अपनी साँसों को भरूँगा
और किसी अनजान बस्ती को निकल जाऊँगा
अपने साथ वो पँछी लिए
तुम्हारे रस भरे होंटों की शाख़ों से
जो मेरे झुकते हुए काँधे के लिए
बे-चैन है
मैं ख़ामोशी के रस्ते पर
उसे आंसू पिलाऊँगा
उसे थपकूँगा
अपनी नींद की बाहों में
उस की हम-रही में
गीत गाऊँगा
कोई क़िस्सा सुनाऊँगा
जहाँ पर
रास्ता ग़ुम हो रहा होगा
उसे आज़ाद कर दूँगा