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मेरी आहों का दीवार पे असर हो शायद / मयंक अवस्थी

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मेरी आहों का दीवार पे असर हो शायद
मेरे जज़्बात की यारों में कदर हो शायद

आदमी था जो वो चौपाया नज़र आता है
रीड़ पे उसकी ये सिज्दों को असर हो शायद

रख्सो रफ़्तार कुछ ज़यादा है मेरे अश्कों में
ये भी टूटे हुए तारों का सफ़र हो शायद

हर कुहासे से हम यूँ जाके लिपट जाते हैं
जैसे किस्मत का वो आगज़े सहर हो शायद

इस बयाबान में बुलबुल ने क्यूँ गाना गाया
अब इस मासूम पे शाही का कहर हो शायद