राग गूजरी, तीन ताल 22.6.1974
मेरी एकहुँ सुनी न टेर।
टेरत-टेरत वयस सिरानी, लागत अबहुँ अबेर।
सन्ध्या भई न घर हरि! आये, कहाँ लगायी देर॥
भटकन ही भावै का तुम को, अथवा अबहुँ सबेर॥1॥
पथ पेखत नयना पथराये, रही निरासा घेर।
कब लौं ऐसे स्याम निभाऊँ, मदन रह्यौ मन पेर॥2॥
अब तो देर न सहन होत है, करहु कृपा इक बेर।
जो पाऊँ तो हिये बसाऊँ, निकसन देहुँ न फेर॥3॥
कहा करूँ कैसे पिय पाऊँ, भई असह अवसेर।
अब तो पिया! मिले ही बनिहै, नतरू होइ तनु टेर॥4॥