मेरी एक और धरती / विजेन्द्र
मेरी एक और धरती भी है
उपजाऊ
सदा अन्नमय
सुंदर और शान्त ऋतुओं के बीज
जहाँ होती हैं अँधेरे की
सघन छायाएँ विश्रान्त
हिलती हैं टहनियाँ
समय की अतुकान्त
टपकती हैं बूँदें अरुणोदय की
पवित्र निष्काम
घास के हरे तिनकों पर
अशा का मत करो कभी तिरस्कार
कैसे हो गए हैं वन
उदास धुँधलके भरे
बिना बिरखा के
मेरे भीतर है
एक और क्षितिज
तुम्हारी कामकाजी आँखों से ओझल
अभी-अभी हुआ है
उदित इंद्रधनु
अंकुरित बिरवों को छूता हुआ
कभी नहीं देखा तुम्हारी तरह
पेड़ को उदास
फूलों के झरन पर भी
वह रहता है मेरी ओर विहँसता
अगले दिन की खिलावट से
क्यों परेशान है अँधेरा
पोदनी चिड़ियाँ
तितलियाँ
मधुमक्खियाँ
ले जाती हैं फूलों को पराग
बिना पूछे ही पेड़ से
शब्द के जन्म से ही
पैदा हुई है आँच वाणी की
बिजली की कौंध से
थरथराती है हवा
अदेह हँसी की गूँजों में भी
छिपा रहता है
दर्द का उफनता लहरा
क्या करूँगा देख कर
अपनी परछाई गँदले पानी में ।
(दिसम्बर, 2012, जयपुर)