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मेरी क़ुरबतों की ख़ातिर यूँ ही बेक़रार होता / आलोक यादव
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मेरी क़ुरबतों<ref>निकटता</ref> की ख़ातिर यूँ ही बेक़रार होता
जो मेरी तरह उसे भी कहीं मुझसे प्यार होता
न वो इस तरह बदलते, न निगाह फेर लेते
जो न बेबसी का मेरी उन्हें ऐतबार होता
वो कुछ ऐसे ढलता मुझमें कि ग़म उसके, मेरे होते
वो जो सोगवार<ref>दुखी</ref> होता तो मैं अश्कबार<ref>रोनेवाला</ref> होता
मुझे चैन लेने देती कहाँ इंक़लाबी फ़ितरत
न मुसाहिबों<ref>दरबारी</ref> में होता, न मैं शह<ref>बादशाह</ref> का यार होता
मैं उसी के नाम करता ये हयात<ref>ज़िंदगी</ref>-मौत सब कुछ
मुझे ज़िंदगी पे 'आलोक' अगर इख़्तियार<ref>अधिकार</ref> होता
शब्दार्थ
<references/>