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मेरी तक़दीर का सहरा युगों से राह तकता है / राम नारायण मीणा "हलधर"
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मेरी तक़दीर का सहरा युगों से राह तकता है
न जाने किस जगह उम्मीद का बादल बरसता है
कभी आकाश में गरजा, कभी अखबार में बरसा
हमारी सूखती फसलों की चिंता कौन करता है
पुरानी सायकल की हम मरम्मत को तरसते हैं
हमारे गाँव का सरपंच नित कारें बदलता है
पड़ौसी का जलाके घर तमाशा देखने वालों
हवा का रुख़ बदलने में ज़रा सा वक़्त लगता है
हमारी बस्तियाँ बारूद का गोदाम हों जैसे
यहाँ अफ़वाह की चिंगारियों का ख़ौफ़ रहता है
सियासत में उसे कुछ तो अलग से फायद होगा
वगरना दलदलों में कौन यूँ गहरे उतरता है
अँधेरों से ज़रा भी हिम्मतों को डर नही लगता
हमारी आँख में उम्मीद का जुगनू चमकता है
खुदाई कर यहीं पर क़ीमती बेशक खदानें हैं
यहीं पर हलधरों के जिस्म का सोना पिघलता है