मेरी देह बीमार मानस का गेह है / मुसाफ़िर बैठा
मेरी देह बीमार मानस का गेह है !
मैं कहीं घूम भर आने का हामी नहीं
यहाँ तक कि अपनी जन्मभूमि बंगराहा
घर के पास ही स्थित
कथित सीता की जन्मस्थली सीतामढ़ी भी
(थोथी वंदना श्रद्धा नहीं होती
सम्यक् कर्म की दरकार है)
मैं विकलांग-श्रद्धा में विश्वास नहीं रखता
मेरे दोनों हाथ सलामत हैं साबुत हैं
मगर ये बेजान-से हैं
जड़ हैं इस कदर कि उठते नहीं कभी
किसी ईश-मसीह की वंदना तक में
माना
ये कमबख़्त हाथ एक नास्तिक के हैं
फिर भी क्या फ़र्क पड़ता है
भक्तजनों के बीच
झूठे-छद्म संकेत तो भर सकते थे ये
वंदना की संकेत-मुद्रा में उठकर !
मेरे आँख-कान विकलांग-से हो चले हैं
इस विकलांग विचार के दौर में
मेरी श्रवण-शक्ति का चिर लोप हो गया है शायद
मेरे कान और मेरी आँखें
गोपन गोलबंदियों-विमर्शों का
न चाहकर भी
आयोजन-प्रायोजन विलोकने को विवश हैं
क्या हमारा साहित्य हमारी संस्कृति
और फिर यह समूचा समाज ही
ऐसे ही गुह्य-गोपन संवादों से अँटा पड़ा नहीं है!
किसी के पास कई-कई अल्फाज़ हैं
और चेहरे भी
(चोली दामन का साथ!)
जिससे हासिल की जा सके
शब्दों की निरी बाजीगरी करने की
कला में महारत
होगा दिल उसके पास और दिमाग भी
और और बहुत कुछ उसमें
गढ़ने की ख़ातिर
महज खुदगर्ज़ी अपनापा
साहित्य के सोहन दरख़्तों के बीच
उग आया यह कैक्टस
चुभने-खरोंचने का अपना जातिगत भाव-स्वभाव
कैसे छोड़ सकता है भला !
इन चेहरों की चमक और चहक की मात्रा
इनके भीतर कुल जमा खोखलेपन का समानुपातिक है
बेशक
अच्छे-बुरे की पहचान रखना
सबके बस का रोग नहीं
पर कुछ में यह काबिलियत है
(ये क्योंकर मानने लगे
कि ‘परोपकाराय पुण्याय, पापाय परपीडनम्’ ही
अच्छे-बुरे का मानदंड है)
मैं नहीं जानता
अच्छे-बुरे की पहचान रखने के ये उद्घोषक
खुद कितने पानी में हैं !
फ़रवरी 2001