मेरी प्रिये / नीरजा हेमेन्द्र
जब भी मैं आता था तुम्हारे समीप
तुम्हारी गर्म साँसें
मुझे अच्छी लगती थी
मैंने तुमसे पूछा- कहाँ से लायी तुम
अपनी साँसों में इतनी गर्माहट
दिखा दिया तुमने
चीर कर धरती का सीना
तुम महक उठी... सोलहवें वसंत में खिले
असंख्य सरसों की पुश्पों की भाँति
लहलहा उठीं मेरे नेत्रों में...
शीत ऋतु में...
गुनगुने जल की भाँति
जब भी प्रवाहित हुईं तुम
मेरी शिथिल धमनियों में
मेरे हृदय ने
पूछा तुमसे एक और प्रश्न
कहाँ से लायीं तुम शीत की कठेरता में भी
अपने भीतर एक गुनगुनी नदी
मेरी शिथिल नसों को
ऊर्जावान करते हुए तुमने
नभ को भेदकर निकलते सूर्य की ओर संकेत किया
ढलती साँझ के खुले, विस्तृत,
सतरंगी क्षितिज में प्रसन्नता के पर्व मनाते
तुम्हे देखकर मैंने तुमसे पूछा
कहाँ से लायीं तुम
इतनी सुखद स्मृतियाँ...
दोनों हाथों को फैलाकर तुमने
नभ में विस्तारित कर दिया
तुम्हारी जीवन्तता देख मेरी प्रिये!
अपने काँपते हाथों में
तुम्हारे हाथों को थामें
चल पड़ा हूँ मैं गन्तव्य की ओर।