भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मेरी भीगी भीगे सी, पलकों पे रह गए / मजरूह सुल्तानपुरी
Kavita Kosh से
मेरी भीगी-भीगी सी, पलकों पे रह गए
जैसे मेरे सपने बिखर के
जले मन तेरा भी, किसी के मिलन को
अनामिका, तू भी तरसे
मेरी भीगी ...
तुझे बिन जाने, बिन पहचाने
मैंने हृदय से लगाया
पर मेरे प्यार के बदले में तूने
मुझको ये दिन दिखलाया
जैसे बिरहा की ऋतु मैंने काटी
तड़पके आँहें भर-भर के
जले मन तेरा ...
आग से नाता, नारी से रिश्ता
काहे मन समझ न पाया
मुझे क्या हुआ था, इक बेवफ़ा से
हाय मुझे क्यों प्यार आया
तेरी बेवफ़ाई पे, हँसे जग सारा
गली-गली गुज़रे जिधर से
जले मन तेरा ...