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मेरी मोहन सों सखि! प्रीति / स्वामी सनातनदेव

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राग गौड़ सारंग, तीन ताल

मेरी मोहनसों सखि! प्रीति।
कहा करों, कछु जानहुँ ना मैं, कहा रीति-अनरीति॥
मोहन विनु न सुहात मोहिं कछु, लगत बहुत विपरीत।
अग-जग में मोहन जैसो मोहिं दीखत कोउ न मीत॥1॥
चढ़ी रहत चित्त पै मोहनकी सुरति सुधा सुपुनीत।
हारे हूँ नहि टरत हिये सों वाको वंसी गीत॥2॥
कहा करों, मेरो मन सजनी! लियो स्याम ने जीत।
कोटि काम सी वाकी वह छवि चढ़ी रहत मो चीत॥3॥
मैं तो भई स्याम की सखि री! रही न नीति-अनीति।
स्याम पिया ने लियो हियो यह, मैं चेरी विक्रीत<ref>बिकी हुई</ref>॥4॥
दई मोल में मोहिं स्याम ने निज पद प्रीति पुनीत।
मैं जानूँ वा मेरा मोहन, यही हमारी रीति॥5॥

शब्दार्थ
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