मेरी यात्रा का ज़रूरी सामान / लीना मल्होत्रा
आज मैं एक लम्बी नींद से उठी हूँ
और मुझे ये दिन ही नही ये ज़िन्दगी भी बिलकुल नई लग रही है
मै नहीं देखना चाहती
सोचना भी नहीं चाहती कि मैंने अपनी ज़िन्दगी कैसे गुज़ारी है
वह पुरुष कहाँ होगा
जिसे मैंने
हर चाय के प्याले के साथ चोरी-चोरी चुस्की भर पिया
और वह पुरुष जो मेरा मालिक था
उसकी परेशानियों और इच्छाओं को समझना मेरा कर्तव्य था जैसे कि मै
कोई रेलगाड़ी की सामान ढोने वाली बोगी थी जिसमें वह
जब चाहे अपनी इच्छाएँ और परेशानियाँ जमा कर सकता था
मेरी यात्रा में मैं उन्हें उसकी मर्ज़ी के स्टेशन तक ढोती
जहाँ से उतर कर वह यूँ विदा हो जाता जैसे कोई मुसाफ़िर चला जाता है.
मैं रात-रात भर गिनती रहती मेरी छत से गुजरने वाले हवाई-जहाज़ों को
और सोचती उनमे बैठे यात्रियों और उनकी पत्नियों के बारे में
जो शायद घर पर उनकी सलामती की दुआएँ माँग रही होंगी
जबकि उनकी सुखद-यात्रा के कई स्पर्श और चुपके से लिए हुए चुम्बन
उन जहाज़ों से मेरी छत पर गिरते रहते
और रेंगते हुए मेरे बिस्तर तक आ जाते
इस तरह मेरी चादरों पर कढ़े फूलों के रंग फ़ेड हो जाते
तब माचिस की डिबिया की सारी दियासलाइयाँ सीलन से भर उठतीं
यही एक मात्र प्रतिरोध था जो मैंने
किया अपने सीमित साधनों से
पर आज मै निकली हूँ घर से
अपनी मर्ज़ी के सब फूल मैंने अपने
सूटकेस में रख लिए हैं
यही मेरी यात्रा का ज़रूरी सामान है