भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मेरी याददाश्त / असंगघोष

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं पूछता हूँ
पत्नी से
किताब कहाँ रखी
वह जानती है
मैं रखकर भूल जाता हूँ
वह तुरन्त बता देती है
कहाँ रखी है किताब।

मैं भूल जाता हूँ
अपना नाम
जिसे वह कभी
अपने मुँह पर लेती ही नहीं
कट्टर हिन्दू औरतों की मानिंद,
मैं बार-बार चिल्लाता हूँ
मैं कौन हूँ?
हूँ मैं कौन?
तब झुँझलाकर पत्नी
तोड़ती है चुप्पी
पागल तो नहीं हो गए?
नहीं-नहीं
मैं पागल नहीं हुआ
मुझे याद है
मेरा गाँव
गाँव के किनारे बसा
अपना मोहल्ला
गाँव की गलियाँ
जूते बनाते पिता
कपड़े सिलती माँ,
खदान में पत्थर तोड़ता भाई
अपनी बीवी, बच्चों
सभी रिश्तेदारों के नाम
उनके काम,

तेरी कथाकथित श्रेष्ठता
और तो और
तेरी ही बनाई
मेरी जात तक
जिसे चाह कर भी मैं
भूल नहीं पाया
कभी

वही जात
जिसे मैं भूल जाना चाहता हूँ
अपने नाम की तरह
किताब की तरह
और भी कई-कई चीजों की तरह
जिन्हें भूल जाता हूँ
अक्सर वक्त-बेवक्त
मेरी याददाश्त
कमबख्त!
इस जाति की
चली क्यों नहीं जाती
मेरे नाम की तरह
किताब की तरह

रेल में सहयात्री द्वारा पूछी गई
मेरी जात की तरह
और भी कई-कई चीजों की तरह
जिन्हें याद करते
मैं खो जाता हूँ
अपनी याददाश्त में खोजने
मुझे खोया देख
झुँझलाकर पत्नी
तोड़ती है चुप्पी
कहाँ खो गए
पागल तो नहीं हो गए?