मेरी लौ / राजकुमार कुंभज
सुनो, सुनो
नवजात शिशु के रुदन में सुनो
आदिम-आकांक्षा का वह आदिम-ताप सुनो
जिसे सबसे पहले किसी माँ या कवि ने ही सुना है
मेरे लिए अँधेरी रात में दिन का उजाला है वह
जिसने रखी बरकरार मेरी लौ !
निश्छल- निरापद हँसी
कब होगा, कब होगा यह
कि अपार, एक अपार शांतिमयी शाम उतरेगी
मेरे आँगन में
और सम्पूर्ण आकाश
मुक्ति-युद्धों से मुक्त हो जाएगा ?
आख़िर कब, आख़िर कब होगा यह चमत्कार
कि खाली थाली में दिखाई दे रही चाँद की झलक
सिरे से तब्दील हो जाएगी रोटी में ?
आख़िर कब होगी, कब होगी मैदान में रोशनी
और रोशनी के मैदान में यहाँ-वहाँ बिखरती
निच्छल- निरापद हँसी ?
ईश्वर की तरह
राक्षस ही चुराते हैं नींद
राक्षस ही चुराते हैं हमारी रोटियाँ
राक्षस ही चुराते हैं कविताएँ
हमें कुछ करना चाहिए कि बन्द हों ये चोरियाँ
और हम सो सकें ईश्वर की तरह ।