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मेरे अन्दर एक गुस्सा है... / राकेश रोहित
Kavita Kosh से
मेरे अन्दर एक गुस्सा है, गुस्से को दबाए बैठा हूँ
मैं जिस ग़म के दरिया में डूबा हूँ, उस ग़म को भुलाए बैठा हूँ ।
लहरों ने साहिल पर तोड़ दिए, घरौंदे कितने बचपन के
इन लहरों से मैं सपने की उम्मीद लगाए बैठा हूँ ।
दुनिया अनजानी हँसती थी - मंज़िल का पता भी भूल गए ?
वो क्या जाने मैं काग़ज़ की कश्ती बचपन से बनाए बैठा हूँ ।
वो रात बड़ी अंधियारी थी, जब तुम आए मेरे घर
तब से आँगन में सौ-सौ दीपक यादों के जलाए बैठा हूँ ।
एक जंग जैसे है दुनिया, एक दिन जीता, एक दिन हारा
कुछ मन में छुपाए बैठा हूँ, कुछ सब को बताए बैठा हूँ ।