भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मेरे इक जीवन-धन / हनुमानप्रसाद पोद्दार

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मेरे इक जीवन-धन घनस्याम।
चोखे-बुरे, दयालु-निरद‌ई, वे मम प्रानाराम॥
चाहे वे अति प्रीति करैं, नित राखैं हिय लिपटाय।
रास-बिलास करैं नित मो सँग अन्य सबै छिटकाय॥
मेरे सुख तैं सुखी रहैं नित, पलक-पलक सुख देहिं।
मो कारन सब अन्य सखिन महँ दारुन अपजस लेहिं॥
आठौं जाम रहैं मेरे ढिंग, नित नूतन रस चाखैं।
नित नूतन रस मोहि चखावैं, मधुरी बानी भाषैं॥
अथवा वे अति बनैं निरद‌ई, मेरे दुख सुख मानैं।
मोय दिखा‌इ-दिखा‌इ अन्य जुबतिन कौं नित सनमानैं॥
जो वे प्राननाथ सुख पावैं मेरे दुख तें सजनी।
तो मैं अति सुख मानि चहौं वह बनौ रहै दिन-रजनी॥
प्राननाथ कौ जिय जेहि चाहै, सो जदि करै गुमान।
मेरे हेतु करैं नहिं कुटिला प्रियतम कौ सनमान॥
तौ मैं जा‌इ, चरन परि ताके, करि मनुहार मनावौं।
दासी बनी रहूँ जीवनभर, कबौं न मान जनावौं॥
जा बिधि तिन्हैं होय सुख, ताही बिधि मैं अति सुख पान्नँ।
प्राननाथ कौं सुखी देखि पल-पल मैं मन हरषान्नँ॥
जो तिय निज-‌इंद्रिय सुख चाहै, इहि कारन प्रिय सेवै।
गाज गिरै ताके सिर, जो इहि बिधि पिय तैं सुख लेवै॥
मैं तौ तिन कें सुख सुख पान्नँ, वे मम जीवन-प्रान।
केहि बिधि होयँ सुखी वे प्यारे, एक यही मम ध्यान॥