मेरे इस जीर्ण कुटीर में / अज्ञेय
मेरे इस जीर्ण कुटीर में-जिस में वर्षा, वायु, निदाघ, शीत, वसन्त की असंख्य सुरभियों और जीवन की असंख्य पीड़ाओं, प्रत्येक ने अपने-अपने सुभीते के लिए असंख्य प्रवेश-मार्ग बना रखे हैं-द्वार एक ही है।
यह वह द्वार है जिस की आड़ में खड़े हो कर मैं ने पहले-पहल तुम्हें देखा था, या मात्र एक बार देखा था, क्योंकि एक बार तुम्हें देख कर इन आँखों ने तुम्हारी छवि को ओझल कब होने दिया!
एक दिन मैं उसी द्वार के सहारे मूक खड़ी थी। सन्ध्या थी, किन्तु ऐसी मेघाच्छन्न कि उस में न विविध रंगों का विन्यास था, न पक्षियों का आकुल कलरव, न मेरे प्राणों में ही वह भव्य, विस्मित लालसा और आशंका के सम्मिलन से कम्पायमान प्रतीक्षा थी जिस से-फिर मेरा चिर-परिचय हो गया...मैं देख रही थी पथ की ओर; तभी तुम उस पर से हो कर जा रहे थे। तुम ने मुझे देखा-तुम ने यह देखा कि मैं वहाँ मूक खड़ी तुम्हें निहार रही हूँ।
तुम्हें किसने कहा था कि तुम उसी प्रकार निरीह उपेक्षा में मत चले जाओ, किसने कहा था कि मेरी ओर न देख कर भी मेरी उत्सुकता को जान कर, मानो उसी के बराबर उठ आओ, उसे स्वीकार कर लो और ले जाओ, कि मैं खड़ी रह जाऊँ-पूर्ववत् किन्तु अपूर्व, पूर्ण किन्तु लुटी हुई, सार्थक किन्तु व्यर्थ!
तुम चले गये। उसी दिन के बाद, जाने कितनी वर्षाएँ आयीं, अभिसार की सूनी रातें लिये; कितनी आँधियाँ बहीं, तृष्णाओं की धूल उड़ाती हुई; कितने बसन्त आये सौरभ-भार लिये; कितने जीवन-अनुभव आये अकथ पीडाएँ सँभाले; और प्रत्येक ने अपने-अपने लिए असंख्य मार्ग बना लिये। किन्तु मैं जानती हूँ, उस दिन से मेरे छिन्न-भिन्न जीर्ण कुटीर में एक ही द्वार है जिस की आड़ से मैं ने तुम्हें देखा था, देखती हूँ, और देखती रहूँगी।
1934