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मेरे उर ने शिशिर-हृदय से सीखा करना प्यार / अज्ञेय
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मेरे उर ने शिशिर-हृदय से सीखा करना प्यार-
इसी व्यथा से रोता रहता अन्तर बारम्बार!
कठिन-कुहर-प्रच्छन्न प्राण में पावक-दाह प्रसुप्त-
पतझर की नीरसता में चिर-नव-यौवन-भंडार।
धवल मौन में अस्फुट-मधु-वैभव के रंग असंख्य-
तदपि अकेला शिशिर, काल का पीड़ा-कोषागार।
मेरे प्रेम-दिवस भी मेरे जीवन के कटु भार-
मेरे उर ने शिशिर-हृदय से करना सीखा प्यार!
मुलतान जेल, 5 जनवरी, 1934