भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मेरे गाँव की लड़कियाँ / उपासना झा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

गाँव की छाती पर पैर रखकर सरपट दौड़ती जा रही हैं
मेरे गाँव की लड़कियाँ
हाँफती-काँपती, सिर पर पैर रखकर भागती जा रही हैं ये नन्हीं किशोरियाँ
घर लीपतीं, चूल्हा-जोड़तीं, बासन माँजती, घर का सौदा-सुलुफ लातीं, गाली खातीं
कब बन गईं ये अदद जीवित मनुष्य!

बभनटोले से लेकर जुलहाटोल तक टुनटुना रहा है नए समय का औजार!
गालियों के स्वस्तिवाचन से आकाश कट कर गिर रहा
सूर्य की तरफ़ मुँह करके दैव को अरोगती ये मातायें
उनके पैदा होते ही मर जाने का अरण्य श्राप जाप रहीं
दबी फुसफुसाहटों में इन अभागिनों के उरहर जाने की कथाएँ
प्रागैतिहासिक काल से सुन रहा है स्तब्ध गाँव

एक तरफ़ बेमेल विवाह का गड्ढा है दूजी तरफ़ कमउम्र का मातृत्व
निशीथ-रात्रि या सुनसान दुपहरों में कौन दैत्य इन बालिकाओं को गायब कर रहा
कौन बरगला रहा है इन सिया-सुकुमारियों को
हर छमाहे, साल बीतते कोई न कोई लड़की भाग जाती है
इस विकट दुष्चक्र को तोड़ना क्या संविधान में लिखना भूल गए थे मेरे पूर्वज
और उनके माताओं-पिताओं ने उन्हें बस समझा जाँघ पर बिठाकर पुण्य अर्जने का सामान