भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मेरे घर के पिछवाड़े से ऊपर उठ के आए चाँद / अमरेन्द्र

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मेरे घर के पिछवाड़े से ऊपर उठ के आए चाँद
माथे पर टिकुली-सा चमचम कितना आज सुहाए चाँद

कहाँ मिलेगा मेरा साथी, जाना है किस ओर मुझे
नभ में खुद ही चलकर मुझको राह दिखाता जाए चाँद

मेरा साथी तो न आया, उसका क्या फिर आयेगा
जिसके आने की खुशियों में बैठा रूप सजाए चाँद

जब तक छत पर निकल न आए चाँद चौदहवीं का चुपके
तब तक मेरे मन को नभ में हँस-हँस कर बहलाए चाँद

मैंने तो इससे भी सुन्दर मुखड़े देखे हैं साथी
फिर क्यों मुझको घूम-घूम कर अपना रूप दिखाए चाँद

हम दोनों की किस्मत ही ये जगने को हैं बनी हुई ं
रात-रात भर तरह-तरह से मुझको यह समझाए चाँद

चाँद तुम्हें जब रात-रात भर जगना ही था ऐसे ही
क्यों न मेरे साथी को संदेश तुम्हीं दे आए चाँद

जितना कि तुम भी न मुझको तड़पाते हो रातों में
उतना तेरी याद दिला कर मुझको यह तड़पाए चाँद

मैंने तुमको कभी लगाया था सीने से अपने भी
जैसे गगन फिरा करता सीने से आज लगाए चाँद ।