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मेरे जज़्बात में जब भी कभी थोड़ा उबाल आया / रमेश तैलंग
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मेरे जज़्बात में जब भी कभी थोड़ा उबाल आया
कभी बच्चों की चिंता तो कभी घर का खयाल आया
पुरानी बंदिशें थीं या पुरानी रंजिशें थीं वो
मेरी पूँजी का हिस्सा थीं, करीने से सँभाल आया
इसे हालात से समझौता करना, चाहो तो कह लो
जगी मरने की ख्वाहिश तो उसे भी कल पे टाल आया
मैं ऐसा हूँ तो क्यों ऐसा ही हूँ, हर पल मेरे आगे
पलट कर बारहा वो ही पुराना-सा सवाल आया
किसी को चाहा तो अच्छा-बुरा कुछ भी नहीं देखा
बड़ी मुश्किल से अपनी ज़िंदगी में ये कमाल आया