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मेरे जितने क़हक़हे थे आंसुओं तक आ गए / राजेंद्र नाथ 'रहबर'
Kavita Kosh से
फेर कर मुंह आप मेरे सामने से क्या गए
मेरे जितने क़हक़हे थे आंसुओं तक आ गए।
ये इशारा है किसी आते हुये तूफ़ान का
आज वो हम को हमारे सारे ख़त लौटा गए।
अब बहार आये न आये, क्या ग़रज़ इस से हमें
मुस्कुराहट से हज़ारों फूल वो बरसा गए।
जा रहे थे हम तो अपनी धुन में मंज़िल की तरफ़
ले के तुम नज़रानए-दिल रास्ते में आ गए।
आओ हम सब मिल के भेजें उन शहीदों पर सलाम
जो वतन के वासिते मैदान में काम आ गए।
हम को भी खिलना था इक दिन बांटनी थीं ख़ुशबुयें
हम हवाए-गर्मे-दुन्या से मगर मुर्झा गए।
वो समंदर था, बुझाता था वो सहराओं की प्यास
पास उस के कितने तश्ना-लब१ गये, सहरा गए।
कुछ तो उन में ख़ूबियां थीं, कुछ तो उन में वस्फ़२ थे
ज़िंदगी में अपने क़द से लोग जो ऊंचा गए।