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मेरे देखने और कहने के बीच / बालकृष्ण काबरा ’एतेश’ / ओक्ताविओ पाज़

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 रोमन जैकबसन के लिए

 एक

जो मैं देखता हूँ
और जो कहता हूँ,
जो कहता हूँ
और जो रखता हूँ मौन,
जो रखता हूँ मौन
और जो देखता हूँ स्वप्न,
जो देखता हूँ स्वप्न
और जो भूलता हूँ मैं :
इन सबके बीच है कविता।

            डोलती है यह
हाँ और ना के बीच,
            जो मैं रखता हूँ मौन
उसे कह देती यह,
            जो मैं कहता हूँ
उसे रखती है मौन,
            जो मैं भूल जाता हूँ
उसके देखती है स्वप्न।

            यह नहीं वाणी
यह है क्रिया।
            यह क्रिया है
वाणी की।

            कविता
बोलती और सुनती है :
            यह है वास्तविक।

और जैसे ही मैं कहता हूँ
            यह है वास्तविक
यह हो जाती है ओझल।

            तो क्या यह अधिक वास्तविक है ?



 दो

मूर्त विचार,
      अमूर्त
शब्द :
      कविता
आती-जाती है
      जो है और
जो नहीं है के बीच।

      यह बुनती है
यह उधेड़ती है विचार।


      कविता पन्ने पर
प्रक्षेपित कर देती हैं आँखें,
प्रक्षेपित कर देती हैं शब्द हमारी आँखों में।

आँखें बोलती हैं,
      शब्द देखते हैं,
दृष्टियाँ सोचती हैं।

      सुनने को
विचार,
      देखो
जो हम कहते हैं,
      छुओ
विचार की मूर्त देह को।

      बंद होती हैं आँखें,
खुल जाते हैं शब्द।

अँग्रेज़ी से अनुवाद : बालकृष्ण काबरा ’एतेश’