मेरे नास्तिक होने का ब्यौरा / अनुज लुगुन
इसे हमारे समय में ही होना था
धर्म अपने निराकार रूप को छोड़ रहा था
जो निराकार थे
वे दाढ़ियों, टीकों और जुबानों से
अपना आकार गढ़ रहे थे
ईश्वर ने सबको
अपनी-अपनी मरज़ी पर छोड़ दिया था
विज्ञान ने
विनाश के सबसे घातक हथियार
बना लिए थे
एक धर्म के लोग दूसरों धर्मों पर
उन्हीं हथियारों से हमले भी कर रहे थे
यह प्रेमचन्द का समय नहीं था
नहीं तो हामिद मेले से
चिमटे की जगह रायफ़ल क्यों ख़रीद लाता
शंकर किसान के यहाँ पण्डित
तलवार लेकर क्यों पहुँचता
यह पहले से और निर्दयी होता समय था
ग़रीबों को धर्म ने बाँट लिया था
ग़रीबी धर्मशास्त्र में कहीं उद्धृत नहीं थी
और जानवर ईश्वर तक पहुँचने के
सबसे आसान प्रतीक बन गये थे
यह समय था विज्ञान से
धर्म को व्याख्यायित करने का
फिर से पृथ्वी को सूरज से परिक्रमा कराने का
वैज्ञानिकों से
पुष्पक विमान को प्रामाणित करने को
कहा जा रहा था
विश्वविद्यालयों को कहा गया था —
धर्म रक्षकों की सेना तैयार करने के लिए
कहीं कोई रंग उभरता था
और धर्म रक्षक उसपर कब्ज़ा करने के लिए
एक दूसरे पर टूट पड़ते थे
कलाकारों के कैनवास को बदरंग कह दिया गया
यह बच्चों के तुतलाने का सबसे भयावह समय था
उन्हें रंगों से खेलने पर पाबन्दी लगी थी
वे अपने मन की भाषा नहीं बोल सकते थे
उनका ईश्वर पहले से तय कर दिया गया था
यह मेरे नास्तिक होने का ब्यौरा था
मुझे न श्लोक चाहिए थे,
न मन्त्र, न आयतें
मुझे कविता की ओर बढ़ना था
और कविता ने कहा —
‘आओ, फिर से चलें उलटी धारा में।’
(मार्क्स की 200वीं और राहुल की 125वीं जयन्ती पर पटना में आयोजित प्रगतिशील लेखक संघ द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम से लौटने के बाद ।)