मेरे पास कहने को कुछ ख़ास नहीं है / कुमार विक्रम
मेरे पास कहने को कुछ खास नहीं हैं
बस आडम्बरी शब्दों का एक ढेर है
जिन पर बैठ मैं उनके तरह तरह के पर्यायवाची रूप
ढूँढता, गढ़ता, बोलता, लिखता रहता हूँ
कुछ वैसे ही
जैसे कोई बड़ा नेता
हर तरह के लिबास, टोपी, रंग पहन पहन कर
खुद को बहरूपिया-सा पेश करने का स्वांग रचता रहता है
दरअसल शब्दकोशो, समान्तरकोशों, विश्वकोशों के बगैर
मेरी अनुभूति, अभिवयक्ति, अनुभव
उस कुबेर की तिजोरी के सामान हैं
जिनसे अगर काला धन का एक एक कतरा निकाल दिया जाए
तो अंततः गाढ़ी पसीने की ख़ुशबू से सुगन्धित
एक पैसा भी ना मिले
आश्चर्य नहीं कि दिन प्रति दिन
सरल शब्दों को और भी विकट, दुरूह, और समझ से परे
बनाने-गढ़ने की अंतहीन परंपराओं को
सुढृढ करने की हर प्रयास में
मैं हमेशा तत्परता से शामिल रहता हूँ
ठीक उसी तरह जैसे
सरल, मीठी, सादा, सुलभ नदियाँ
दौड़ दौड़ कर तत्परता से
खारे, रहस्यमय, घाघ समुद्र में कूदती जाती हैं.
‘उद्भावना ‘ 2015