मेरे प्रेम / अंकिता जैन
तुम नहीं जानते प्रेम को बांधना
किसी निहित दिन या हफ़्ते की बेड़ी में
ना ही उबलता है प्रेम तुम्हारा
किसी वार्षिक उत्सव के नाम पर
तुम्हें याद नहीं रहता
दुनिया में हम-तुम आए कब थे
या मेरी माँग में सितारे तुमने
सजाए कब थे
तुम अक्सर ही भूल जाते हो
किसी नए लिवास में मेरी तारीफें गढ़ना
या बनी-संवरी मेरी काया के नाम
चासनी में लिपटे क़सीदे पढ़ना
तुमने ख़रीदा नहीं मेरे नाम का
कोई तोहफ़ा ही कभी,
ना ही चमकी मेरी आँखों में
कभी अचरजभरी ख़ुशी
पर तुम जानते हो
शरीर से इतर मेरी आत्मा को तुष्ट करना
विपरीत घड़ियों में उपजी
मेरी असंतुष्टि को संतुष्ट करना
तुम करते हो प्रेम एक लय में
एक जैसा, एक बराबर
हर मिनिट, हर घंटे,
हर दिन, हर हफ़्ते
तुम मना लेते हो मेरे होने की ख़ुशी
बिना किसी तयशुदा दिन के
नहीं जीते तुम हमारे एक होने के हर्ष
तारीख़ें गिन-गिन के
तुम मुझे एहसास कराते हो
कि मैं सुंदर हूँ हर रूप में
मैंने पाया है तुम्हारा चरम प्रेम
जब जी रही थी जीवन के
क्षण सबसे कुरूप मैं,
तुम देते हो तोहफ़े में अक्सर ही
मेरे लिंग के नाम पर बनी
बेड़ियों को आहूतियाँ
भर देते हो मेरे रोम-रोम को अचरज से
देकर नित-नई विभूतियां
जब भी रुकी हूँ हताशा से
तुमने उत्साह से आगे बढ़ाया है
जब भी जकड़ा है रोष ने
तुमने प्रेम से शांत कराया है
तुम समेट लेते हो
मुझे बिखरने से पहले
तुम कहते हो मन से
कि मन का हर काम कर ले
तुम फँसने नहीं देते मेरे ख़याल
छल और प्रपंच में
तुम खड़े हो सीना तान आगे यूँ
कि नहीं लुट पाती लुटेरों से रंच मैं
तुममें भौतिकवाद का दंश नहीं
और सुनो
तुमसा निराला दुनिया में
दूसरा कोई अंश नहीं !!