भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मेरे फुफकारने भर से / वंदना गुप्ता
Kavita Kosh से
मेरे फुफकारने भर से
उतर गए तुम्हारी
तहजीबों के अंतर्वस्त्र
सोचो
यदि डंक मार दिया होता तो?
स्त्री
सिर्फ प्रतिमानों की कठपुतली नहीं
एक बित्ते या अंगुल भर नाप नहीं
कोई खामोश चीत्कार नहीं
जिसे सुनने के तुम
सदियों से आदि रहे
अब ये समझने का मौसम आ गया है
इसलिए
पहन लो सारे कवच सुरक्षा के
क्योंकि
आ गया है उसे भी भेदना तुम्हारे अहम् की मर्म परतों को ओ पुरुष!