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मेरे बचपन का घर / दिलीप चित्रे

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मेरे बचपन का घर खाली पड़ा था
एक धूसर पहाड़ी पर
उसके सभी फ़र्नीचर जा चुके थे
सिवा दादी की चक्की के पाट
और उसके देवी-देवताओं की पीतल की मूर्तियों के

चिडिय़ों की मृत्यु के बाद भी
उनकी चहचहाहट मन में गूँजती रहती है
शहर के मिटने के बाद भी
एक धुँधलका हवा को आबाद करता रहता है
पौ फटने के ठीक पहले की रंगहीन दरार में
उस जगह में जहाँ कोई गा नहीं सकता
ध्वनि-शिल्पों की महीन नक्काशियों में
शब्द सन्नाटे बाँटते हैं

मेरी दादी की आवाज़ नंगी शाख पर थरथराती है
उस खाली घर में ठुमकता फिरता हूँ
ग्रीष्म और वसन्त दोनों जा चुके हैं
पीछे छोड़ एक वृद्ध शिशु
उम्र के कमरों में खोज के लिए