मेरे भारत का पार्थ / महाराज सिंह परिहार
कौन हमारे नंदनवन में बीज ज़हर के बोता है
अफ़सोस मेरे भारत का पार्थ अभी तक सोता है
आज चंद्र की शीतलता आक्राँत हुई है।
किरणें रवि की भी अब शांत हुई हैं
मौन हवाएँ भी मृत्यु को आमंत्रण देती
पाषाणी दीवारे भी अब नहीं नियंत्रण करती
शब्दकार भी आज अर्थ में खोता है
अफ़सोस मेरे भारत का पार्थ अभी तक सोता है
हम भूल गए सांगा के अस्सी घावों को
भुला दिया हमने अपने पौरुष भावों को
दिनकर की हुंकार विलुप्त हुई अम्बर में
सीता लज्जित आज खड़ी है स्वयंवर में
राम-कृष्ण की कर्मभूमि में क्रन्दन होता है
अफ़सोस मेरे भारत का पार्थ अभी तक सोता है
बौनी हो गई परम्पराएँ आज धरा की
लुप्त हो गईं मर्यादाएँ आज धरा की
मौन हो गई जहाँ प्रेम की भी शहनाई
बेवशता को देख वेदना भी मुस्काई
रोटी को मोहताज वही जिसने खेतों को जोता है
अफ़सोस मेरे भारत का पार्थ अभी तक सोता है
अब सत्ता के द्वारे दस्तक नहीं बजेगी
क़दम-क़दम पर अब क्रांति की तेग चलेगी
निर्धन के आँसू अगर अंगार बन गए
महलों की खुशियाँ भी उसके साथ जलेंगी
देख दशा त्रिपुरारी का नृत्य तांडव होता है
अफ़सोस मेरे भारत का पार्थ अभी तक सोता है