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मेरे मन, पत्थर बन / विंदा करंदीकर / दामोदर खड्से

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यह रास्ता अटल है !
अन्न बिना, वस्त्र बिना;
ज्ञान बिना, मान बिना ।
ठिठुराए यह जीव
देख मत ! आँखें सी ले !
मत देख जीना उदास
ऐन रात होंगे आभास
सीने में रुक जाएगा श्वास
भूल इन्हें, दबा उबाल;
मेरे मन, पत्थर बन !

यह रास्ता अटल है !
मत सुन यह आक्रोश,
तेरा गला जाएगा सूख ।
कानों पर हाथ धर
उससे भी आएँगे स्वर ।
इसलिए कहता सीसा उँडेल;
सँभल-सँभल, हो जाएगा पागल !
रोने वाले, रोएगा कितना ?
कुढ़ने वाले, कुढ़ेगा कितना ?
दबने वाले, दबेगा कितना ?
मत सुन, ऐसा क्रन्दन;
मेरे मन, पत्थर बन !

यह रास्ता अटल है
यहीं रहते हैं निशाचर
जगह-जगह राहों पर
अन्धेरे में करते नाच,
हँसते-बिचकाते काले दाँत;
और कहते — 'कर हिम्मत,
आत्मा बेच, उठा क़ीमत !
मनुष्य मिथ्या, सोना सत्य;
स्मरो उसे, स्मरो नित्य'
सुन चकराएगा ऐसे वेद;
पत्थर बन, न कर खेद !

आज से पत्थर बन
क्या रुकेगा तेरे बिन;
गाल पे ढलका खारा पानी
पीकर किसे मिली ज़िन्दगानी ?
क्या तेरे ये निःश्वास
मरने वालों को देंगे श्वास ?
और दुख छाती फोड़ें
देंगे उन्हें सुख थोड़े ?
है दुख वही अपार,
मेरे मन, कर विचार
कर विचार, लगा ठहाका;
मेरे मन, पत्थर बन !

यह रास्ता अटल है !
अटल है गन्दगी सारी,
अटल है यह घिन सारी,
एक समय ऐसा आएगा
गन्दगी का खाद बन जाएगा !
अन्याय के सारे दाने
उठेंगे फिर; बनेंगे भूत ।
इस सोने की बनेगी सूली,
चढ़ेगा सूली, सारा कुल !
सुनो टाप! सुनो आवाज़ !
लाल धूल उड़ती आज;
इसके बाद आएगा सवार,
इस पत्थर पर लगाएगा धार !
इतने यश, तुझे बहुत,
मेरे मन, पत्थर बन !

मराठी भाषा से अनुवाद : दामोदर खड्से