भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मेरे मन के राग नए-नए / शमशेर बहादुर सिंह

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मेरे मन के राग नए-नए,
तुझे गीत में जो बुला गए,
वो न जाने किस के गले लगे,
वो न जाने किस को सुहा गए !

हमें आज यह भी ख़बर नहीं
कि वही फलक हैं, वही ज़मीं
वही चाँदनी है कि यह हमीं
कोई ख़ाब है कि दिखा गए !

मुझे कितना-कितना दुखा गई,
मेरे दिल को छलनी बना गई—
वही टीस-सी, वही आह-सी
जिसे हम जरा-सा दबा अए !

वो है लाख दुश्मने-जाँ तो क्या,
मेरा दिल उन्हीं पे फ़िदा हुआ,
वो जो दिल को आग लगा गए,
मेरी ज़िन्दगी में समा गए !

हमें 'शम्स' पर बड़ा नाज़ था,
उन्हें हम समझते थे पारसा,
मगर आख़िर-आख़िरे-इम्तहाँ,
वही अपना रंग दिखा गए ।