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मेरे लहू की चीख को कब कोई आसरा मिला / शहरयार

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मेरे लहू की चीख को कब कोई आसरा मिला
दश्त भी बेज़बान था, शहर भी बेसदा मिला

ख़्वाब में आसमान पर देखा था मैंने इक उफ़क़
आंख खुली तो दूर तक धुंध का सिलसिला मिला

तेरी गली को छोड़ कर जाने का क़स्द जब मिला
मेरा हरेक रास्ता दश्ते-ख़ला से जा मिला

बर्फ पिघल के बह गई, धूप का नाम हो गया
लेकिन ये राज़ राज़ है धूप को इससे क्या मिला।