मेरे लिए कष्ट न करो उतरने का, प्रभो!
झाँककर हाँक भर दो कि चला आऊँ मैं;
घेरे जान जाएँ कि पुकारा मुझे किसने है,
सीढ़ियाँ मिलें न मिलें, चोटी चढ़ जाऊँ मैं।
भारवाह हूँ मैं, इसकी न परवाह मुझे,
सर्वदा तुम्हारे द्वार भार ही उठाऊँ मैं;
मंद हूँ, इसी से पद-सेवा ही पसंद मुझे;
यहीं रहूँ और यही चाकरी बजाऊँ मैं॥
तुमसे तुम्हारे ही लिए मैं तुम्हें माँगता हूँ,
पार लगूँ, इसी में तुम्हारा भी उबार है;
वैभव तुम्हारा नहीं, सिर्फ़ तुम्हें माँगता हूँ,
क्योंकि और जो कुछ है, गर्द है, गुबार है।
आधी दौड़ पूरी हुई, आधी अब और बची!
हाँफने लगा हूँ, पहरावा बना भार है!
कौन हूँ, कहाँ हूँ और क्या हूँ, जग जानता है,
आगे जानो तुम कि तुम्हारा क्या विचार है॥