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मेरे साथी / नरेन्द्र शर्मा
Kavita Kosh से
औरों से तो अच्छे ही हैं;
पर उतने अच्छे नहीं, आह, (जितने अच्छे मैं समझा था) मेरे साथी!
छाँटो तुम कितना ही चुन चुन, हैं सब में बहुतेरे औगुन!
पर क्या यह दोषी स्वार्थ नहीं
जो भाता मुझे यथार्थ नहीं
जीवन की सच्ची भूख नहीं, दिखता मुझको दाने में घुन!
काहिल को चुभते हैं गद्दे, सौ बार रुई लो चाहे धुन!
या मेरा आहत अहंकार
खिझिया जाता जो बार बार
जब अपने निष्फल सपनों को आख़िर उघेड़ता हूँ बुन बुन?
छाँटो तुम कितना ही चुन चुन, हैं सब में बहुतेरे औगुन!
हाँ, ये उतने अच्छे न सही, जितने अच्छे मैं समझे था;
औरों से--हाँ, अच्छे अच्छों से--अच्छे हैं मेरे साथी!