भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मेरे होते भी अगर उनको न आराम आया / नज़ीर बनारसी
Kavita Kosh से
मेरे होते भी अगर उनको न आराम आया
जिन्दगी फिर मिरा जीना मिरे किस काम आया
सिर्फ सहबा <ref>शराब</ref> ही नहीं रात हुई है बदनाम
आप की मस्त निगाहों पे भी इल्जाम आया
तेरे बचने की घड़ी गर्दिशे अय्याम <ref>बदमिस्मती</ref> आई
मुझसे हुशियार मिरे हाथ में अब जाम आया
फिर वो सूरज की कड़ी धूप कभी सह न सका
जिसको जुल्फों की घनी छाँव में आराम आया
आज हर फूल को मैं देख रहा था ऐसे
मेरे महबूब का खत जैसे मिरे नाम आया
मौजे गंगा की तरह झूम उठी बज्म ’नजीर’
जिन्दगी आयी बनारस का जहाँ नाम आया
शब्दार्थ
<references/>