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मेरो मन गयो स्याम के संग / स्वामी सनातनदेव
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राग रामकली, तीन ताल 17.6.1974
मेरो मन गयो स्याम के संग।
कहा करों मन बिनु अब आली! भये भोग सब भंग॥
निरखत ही यह रूप-माधुरी भयो और ही ढंग।
तन-मन की सब सुधि-बुधि भूली, भई सखी! मैं दंग॥1॥
मुख-मयंक की वह मोहनि छवि निरखत गयी उमंग।
अकी जकी-सी रही सखी! मैं, भये सिथिल सब अंग॥2॥
अब हूँ तन मन-बिनु ही भासत, भयो अपूरब ढंग।
छूटि गये घर के सब धन्वे, व्याप्यौ अंग-अनंग॥3॥
ऐसी दसा देखि मो मनकी ननद करत नित तंग।
मैं का करों, करी मोहन की छबि ने मोहिं अपंग॥4॥
कैसे हूँ कोउ करो कहो, अब, मोसांे होत न जंग।
मैं तो भई स्याम की सजनी, रंग होउ वा भंग॥5॥