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मेरो मन गयो स्याम के संग 2 / स्वामी सनातनदेव

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राग अहीर-भैरव, तीन ताल 19.9.1974

मेरो मन गयो स्याम के संग।
जब सों दृष्टि परे नँद नन्दन चढ़्यौ तिनहिको रंग॥
वह चितवन, वह हँसन माधुरी, वह मृदु ठवनि त्रिभंग।
चीज भरी वह बोलन प्रिय की हिय उमँगात अनंग॥1॥
बेनु बजाय रिझाय स्यामने मैं कर दई अपंग।
होत नाहिं कोउ कारज घर को, भयो अपूरब ढंग॥2॥
चढ़ो रहत चित पै वह मूरति, होत रंगमें भंग।
सुनत न काह ूकी यह सजनी! होत नित्य हुरदंग॥3॥
परिजन पुरजन सबहि चिरावहिं बोलि बोल बेढंग।
पै अब मोहिं न कानि काहु की, रँगी स्याम के रंग॥4॥
ऐसो रंग चढ़्यौ मोहन को, रँगे ताहि सब अंग।
ना यह छुटत न चढ़त याहुपै अब कोउ दूजों रंग॥5॥
स्याममयी मैं भई सखी री! स्यामहि थावर जंग<ref>स्थावर जंगम</ref>।
भीतर-बाहर रम्यौ स्याम ही, चढ़ी स्याम की भंग॥6॥

शब्दार्थ
<references/>