मैँ रोता हूँ मेरे रोने को सब नकली समझते हैँ / सिराज फ़ैसल ख़ान
मैँ रोता हूँ मेरे रोने को सब नकली समझते हैं ।
मगर संसद के घड़ियालों को सब मछली समझते हैं ।
मची है लूट सारे मुल्क में हालात हैँ बदतर,
लुटेरों की वो जन्नत है जिसे दिल्ली समझते हैं ।
वो ख़ुश है उसके भाषण पर बजी हैं तालियाँ लेकिन,
सियासत में सभी वादों को हम 'रस्मी' समझते हैं ।
हमें मालूम ना था छुपके मिलते हो रक़ीबों से,
तुम्हारी ज़ात को हम आज तक असली समझते हैं ।
तरक्की आपको और आपके शहरों को मुबारक,
हम अपने गाँव को ही दोस्तो इटली समझते हैं ।
फरेब खाकर हज़ारों इश्क़ में ख़ामोश बैठी है,
मुहल्ले वाले नाहक ही उसे पगली समझते हैं ।
किसी के ग़म में रो रोकर धुले हैं रंग सब उसके,
वही तस्वीर कि जिसको सभी धुँधली समझते हैं ।
वो एक दिन धूप में आये थे तो पानी बहुत बरसा,
मेरे घरवाले उस दिन से उन्हें बदली समझते है ।