भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मैंने अपने जन्मान्तर को / रामस्वरूप 'सिन्दूर'
Kavita Kosh से
मैंने अपने जन्मान्तर को,
भाषान्तर में गाया!
कविता में अकथ्य कथान्तर को
गीतान्तर में गाया!
अक्षर-अक्षर स्वर-लिपियों में
अनुगुन्जन ढल जाता है,
ध्वनि-मुद्रित शब्द-शब्द में
कोई छन्द उभर आता है,
मैंने अपने भावान्तर को
भाषान्तर में गाया!
निर्वचन हुए अर्थान्तर को,
गीतान्तर में गाया!
रस-चक्रव्यूह भेदन कर
मैंने काया-कल्प किया है,
निर्झर से घाटी में उतरी
गति का संगीत जिया है,
मैंने अपने रूपान्तर को,
भाषान्तर में गाया!
प्रान्तर-प्रान्तर देशान्तर को,
गीतान्तर में गाया!
मैं आत्म-निरति में डूब
नाद के तल में लौट गया हूँ,
भूला श्रुतियों को, श्रुति के
पहले पल में लौट गया हूँ,
मैंने अपने लोकान्तर को,
भाषान्तर में गाया!
ठहरे-ठहरे कालान्तर को,
गीतान्तर में गाया!