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मैंने कितनी बार ग़रीबी में / रामश्याम 'हसीन'
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मैंने कितनी बार ग़रीबी में
झेली वक़्त की मार ग़रीबी में
ख़ुद से जितनी भी थी उम्मीदें
टूटीं सौ-सौ बार ग़रीबी में
बेशर्मी को ओढ़े फिरते हैं
अक्सर इज़्ज़तदार ग़रीबी में
घर की हालत मत पूछो, गुम हैं
दरवाज़ा, दीवार, ग़रीबी में
किसकी बात कहूँ, सब रूठे है
बीवी-बच्चे-यार ग़रीबी में