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मैंने ठोकरों में जी के लिक्खी है ये कहानी / सोना श्री

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मैंने ठोकरों में जी के लिक्खी है ये कहानी l
सुन दर्द-ए-बेज़बां को अशआर की ज़बानी l
 
दुश्वारियों में काटे बचपन के वो हसीं दिन-
बिखरी है मुश्क़िलों में अब हसरत-ए-जवानी l
  
जुल्मो-सितम जहाँ के गर मैं बयान कर दूँ-
पत्थर की मूर्तियाँ भी हो जाएं पानी-पानी l

बद-क़िस्मती का मुझसे नाता बहुत पुराना-
होठों पे तबस्सुम की अब बात है पुरानी l

उम्मीद हम करें क्या बे-जान ज़िन्दगी से-
नफ़स-ओ-धड़कनों की बस रस्म है निभानी l

दिल में दफ़न पड़ें हैं 'सोना' के रंज़ो-ग़म सब-
रब ने भी अनसुनी की, दुनिया ने भी न मानी l